Thursday, September 11, 2008
कभी- कभी मैं सोचती हूं कि कया हम आज़ाद हैं ? क्या हम कुछ भी कर सकते हैं बिना अपना हित सोचे, नहीं, कयोंकि हम हमेंशा वही काम करते हैं जो हमारे लिऐ अच्छे होते हैं। पिछले सप्ताह मैंने एक किताब पढ़ी, जिसका नाम था “नोटस फरोम दी अन्डरगराउड” उसका लेखक था डोसटोएफसकी, वह रशिया का रहने वाला था। उसने बहुत सारी किताबें लिखी जैसे कि, “द बर्दरस कारामाज़ाफ” और “कराइम एन्ड पनिशमैंट”। उस की “नोटस फरोम दी अन्डरगराउड” कहानी मे एक आदमी बार- बार ऐसे काम करता है जो उसके हित मे नही हैं, उसे दुख पहुचाते हैं और उस की जिन्दगी में मुशि्कलें पैदा करते हैं। क्योंकि वह सोचता है कि वह आज़ाद तभी है जब वह कुछ भी कर सकता है। जैसे अपने सारे पैसे किसी को दे देता है यह जानते हुए कि अगले दिन किराया भी देना है, छोटी-मोटी नौकरी करता है जब कि अच्छी नौकरी की काबिलीयत रखता है। वो साबित करना चाहता है कि वह आज़ाद है। किसी का गोलाम नहीं है अपने आप का भी नही। इस कहानी को पढने के बाद मुझे ऐसा लगा कि आदमी गुलाम है, अपनी इच्छा का गुलाम, आज़ाद नहीं। लेकिन इस कहानी का करैटर बहुत बहादुर है, असल जिन्दगी में यह सम्भव नही होसकता है।
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1 comment:
आजाद तो वह चरित्र भी नहीं है। वह प्रयोग कर रहा है अपनी इच्छा से। तब क्या वह अपनी इच्छाआें का गुलाम नहीं हुआ।
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